आज राष्ट्रकवि रामधारी सिंह ‘दिनकर’ की 116वीं जयंती है। उनकी कविताएँ अपने ओज, राष्ट्रप्रेम और वीरता के लिए जानी जाती हैं। उनकी कलम ने समाज को जगाने और सोचने पर मजबूर करने का काम किया। उनकी जयंती पर, आइए उनकी कुछ प्रमुख कविताओं को याद करते हैं।’

रश्मिरथी’ से (तृतीय सर्ग)यह कविता उस समय की है जब श्रीकृष्ण दुर्योधन को शांति का अंतिम संदेश देने जाते हैं और असफल होने पर अपना विराट रूप दिखाते हैं।
रश्मिरथी
जब नाश मनुज पर छाता है, पहले विवेक मर जाता है।
हरि ने भीषण हुंकार किया,अपना स्वरूप-विस्तार किया।डगमग-डगमग दिग्गज डोले, भगवान कुपित होकर बोले। हाँ, दुर्योधन! बाँध मुझे, बांधने आया है जंजीर बड़ी क्या लाया है।
क्या मुझे बाँधना संभव है,सोचकर देख यह व्यर्थ प्रयत्न है।
मैं नहीं एक, मैं अनगिनत हूँ,मैं अनन्त, मैं असीम हूँ, मैं परमेश्वर हूँ।
मैं इस ब्रह्मांड का कण-कण हूँ,मैं ही यहाँ का कण-कण हूँ।
मैं हूँ सब, मैं ही सब कुछ हूँ।
मुझे बाँधने का प्रयत्न न कर,क्योंकि मैं तुझ में और मुझ में हूँ।
समर शेष है, नहीं पाप का भागी केवल व्याध।
जो तटस्थ हैं, समय लिखेगा उनका भी अपराध।
समर शेष है
यह प्रकाश का क्षण अंधकार का भेद।
समर शेष है, इस राष्ट्र की चेतना का क्षय, नहीं।समर शेष है, अभी सिंहासन खाली है।यह भू-मंडल नहीं, आज का संसार है,भय-ग्रस्त होकर, मनुष्यता का क्रंदन,जोड़ रहा है एक नया इतिहास।हिमालय मेरे नगपति! मेरे विशाल!साकार, दिव्य, गौरव विराट,पौरुष के पुंजीभूत ज्वाल!मेरी जननी के हिम-किरीट! मेरे भारत के दिव्य भालातू अखंडता का प्रतीक है,यह युगों से मेरी आस्था का प्रमाण है।तू अचल, अडिग और शांत है,यह मेरे देश का मान है।कुरुक्षेत्र से न्याय धर्म का त्याग कर के विजय का स्वागत नहीं कर सकता।मैं अपनी आत्मा को बेचकर स्वर्ग का स्वागत नहीं कर सकता।सत्य और न्याय की विजय है,वह विजय जो धर्म का मान है।अन्याय से भरी कोई भी विजय,वह एक हार है, यह मेरा ज्ञान है।

